मैं एक शिक्षक हूँ .
मैंने अपनी लगभग 30 साल की सर्विस में बहुत विद्यार्थियों को पढाया. इनमे न जाने
कितने सलीम, कितने मार्टिन, कितने मंजीत या फिर कितने श्याम आदि आदि .. रहे होंगे
. मैंने करीब से इन सब को अपनी आँखों के
सामने लड़ते देखा, झगड़ते देखा प्यार करते देखा. हाँ ये सभी ब्रेक टाइम में एक दूसरे
के साथ बैठ कर खाना शेयर करते थे. एक दूसरे
पर जान न्योछावर करने को त्यार रहते थे. मैंने कभी इन्हें मजहब, धर्म, जाति के नाम पर लड़ते-झगड़ते
नहीं देखा. क्यों कि हमने इन्हे कभी यह
पाठ पढ़ाया ही नहीं . एक शिक्षक के पाठ्यक्रम में ये सब कुछ नहीं होता. ये सभी वर्षों
तक हमसे शिक्षा लेते रहे. इनके माँ-बाप ने
स्कूल इसी विश्वास के साथ भेजा था. हमारे बाद इन्होने हमारे जैसे अन्य शिक्षकों से शिक्षा
ली होगी. उन्होंने भी इनको वही शिक्षा दी होगी जो कभी हमने दी थी .
आज सुनते है, देखते हैं,
मजहब, धर्म, जाति के नाम पर लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हैं. लोग इस उन्माद में अपनी जान खो रहे है. दुःख होता है, जो बच्चे स्कूल कॉलेज से एक अच्छी शिक्षा लेकर गए उनमे से
कुछ आज समाज में एक अच्छे नागरिक की तरह
भाई चारे के साथ क्यों नहीं रह पाए ? क्या
हमारी शिक्षा में कोई कमी रह गई जो कि बाहर जाते ही सब भाई चारा भूल गए ?
जागो मेरे बच्चो, ये देश
किसी की धरोहर नहीं, किसी की जागीर नहीं. ये
देश मेरा है, तुम्हारा है, हम सब का है.
एक जान की क्या कीमत होती है ये उससे पूछो जिन्होंने इस उन्माद में अपनों
को खोया है.
हाँ यदि लड़ना ही है तो
देश के दुश्मन से एक जुट हो कर लड़ो.
हम सब इंसान हैं यही
हमारी जाति है, यही हमारा धर्म है, यही हमारा मजहब है...!!!
नरेश चंद्रा, मुंबई